Saturday, November 5, 2011

मैं पत्थर हूँ

मैं पत्थर हूँ मुझे जीना नहीं भगवान सा बनकर ।
मुझे रहना नहीं खुद में कोई मेहमान स...ा बनकर ।

कोई जीता यां हारा ख़ाक मेरी ही उडी हर पल ,
जीआ मैं ज़िन्दगी को जंग का मैदान सा बनकर ।

मेरी हर सोच में रहता है यह बाज़ार दुनिया का ,
मैं अप्पने घर पड़ा रहता हूँ बस सामान सा बनकर ।

मेरे अंदर मेरे चिहरों में इक ऐसा भी चेहरा है ,
जो मुझ को रोज़ मिलता है मगर अनजान सा बनकर ।

रहा हूँ मैं तेरी दुनिया में जैसे मैं नहीं कुछ भी ,
रहा मैं दूर मैं मैं से कहीं गुमनाम सा बनकर ।

कहाँ कैसे मिलु तेरा कोई अरमान सा बनकर ,
अभी रहता हूँ अप्पने पास मैं मेहमान सा बनकर ।


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