Saturday, November 5, 2011

कडवा सच....??

कडवा सच यही है कि 80 के दशक के बाद राष्ट्रीय नेता असर खोते चले गए और क्षेत्रीय क्षत्रप बलशाली और राष्ट्रीय स्तर पर छाते चले गए। 2-2 सीट जीतने वाले दल भी राजनीति चलाने लगे। देश हांकने लगे। नखरे दिखाने लगे। बड़े दलअसहाय नजर आने लगे। बेमेल गठजोड़ बनने लगे। राजनीति की धारा उल्टी बहने लगी। हालत यह हो गई है कि गठजोड़ के बिना सरकार बनती और चलती दिखाई नहीं देती। चुनाव से पहले अलग गठजोड़ और सत्ता के लालच में चुनाव बाद किसी दूसरे के पाले में। जनमत अगर सही दिशा में नहीं जाएगा तो फिर इस देश व लोकतंत्र का खुदा ही मालिक है।


आज जिस तरह से स्पेक्ट्रम विवाद की आंच हर राजनैतिक दल को झुलसा रही है उससे तो यही लगता है कि कुछ ने इसमें अपने हितों को साधा और कुछ तो बिना बात के ही आरोपी बन गए हैं क्योंकि उस समय जो भी निर्णय लिए गए थे उसमें उनकी सामूहिक भूमिका थी. इन सभी बातों पर गंभीरता से विचार करने के बाद सरकार को होने वाले राजस्व नुकसान का आंकलन किया जाना चाहिए और आज के समय उसे उन कम्पनियों से चरण बद्ध तरीके से वसूल किया जाना चाहिए क्योंकि कहीं न कहीं से जो भी नुकसान हुआ है अब उसकी भरपाई होनी चाहिए.


अच्छे शासन के लिए शीला दीक्षित, नरेन्द्र मोदी, नवीन पटनायक, रमण सिंह और नितीश कुमार जैसी कार्यशैली चाहिए होती है केवल राजधानी में दरबार लगाने से अगर सत्ता बची रहा करती तो आज भी देश में राजाओं और नवाबों का शासन होता ? अब जनता जाग चुकी है

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